किसानों को आत्महत्या करने के बजाय हथियार उठाने चाहिए –शरद जोशी
जुलाई 13, 2012 - 17:02
भारत में किसान आंदोलन को संगठित कर उसे जुझारू तेवर देनेवालों में सबसे महत्वपूर्ण नाम है शरद जोशी।कई दशक पहले वेविश्व बैंक की नौकरी छोड़कर महाराष्ट्र आए और किसानों की आवाज बुलंद करने के लिए –शेतकरी संगठना की स्थापना की।उनके नेतृत्व में महाराष्ट्र के किसानों ने कई उग्र आंदोलन के जरिये एक मिसाल कायम की और देश के अन्य राज्यों के किसानों को भी अपने मांगों के लिए संगठित होने के लिए प्रेरित किया।शरद जोशी की एक और खासियत यह है कि वे एक प्रखर उदारवादी बुद्धिजीवी भी हैं और उदारवादी सोच के मुताबिक बहुत तर्कपूर्ण ढंग से किसानों के मुद्दों को उठाते आए हैं जिसने कई बहसों को जन्म दिया।
इन दिनों शरद जोशी स्वतंत्र भारत पक्ष के अध्यक्ष हैं और हाल ही में शिवसेना के समर्थन से राज्यसभा के लिए चुने गए।पिछले दिनों हमने कृषि और किसानों के मसले पर उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है उसके प्रमुख अंश –
यूपीए सरकार ने कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता देने की घोषणा की है । बजट में इसके लिए कई कदम उठाए गए हैं।इस कारण चिंदबरम के बजट को गांवों और किसानों का बजट कहा जा रहा है।क्या यूपीए की इस नीति से गांवों और किसानों की हालत बदलेगी?
चाहे एनडीए हो या यूपीए दोनों ही यह दावा करते हैं कि किसानों का भला किया ।मगर मेरे पास एक पैमाना है ।मैने आज नहीं बरसों पहले बनाया था कि कृषि का व्यवसाय फायदे में चल रहा है कि घाटे में।किसके राज्य में किसान को लागत की तुलना में कितना मूल्य मिला।
मेरा मानना है कि इस पैमाने पर नापा जाए तो कांग्रेस हमेशा किसानों की दुश्मन नंबर –एक रही है क्योंकि 1996-97 तक की देश की सारी नीतियां नेगेटीव सब्सिडी पर आधारित थी।सरकार किसानों को मदद भले ही देती हो मगर उसकी निर्यात पर पाबंदीऔर आयात नीति से किसानों का नुक्सान ज्यादा हुआ।मुक्त बाजार में कीमतें गिरीं।
1998 में जब मुझे टास्क फोर्स का अध्यक्ष बनाया गया तब मैंने एक आकलन किया था कि पिछले 20 सालों में किसानों को सरकारी नीतियों की वजह से तीन लाख करोड़ रूपये का नुक्सान हुआ।
1998 में किसानों के लिए नए जमाने की शुरूआत हुई जब विश्व बैंक को भी यह मानना पड़ा कि पहली बार भारत के किसानों को सकारात्मक सब्सिडी मिलने लगी है।
यह कहा जा रहा है कि आत्महत्याएं मुख्य रूप से व्यावसायिक फसलें उगानेवाले किसान कर रहे हैं जिसमें ज्यादा पूंजी लगती है और इससे किसान की आर्थिक जोखिम बढ़ जाती है।
व्यावसाय़िक फसलें बोनेवाले किसानों में से मुख्यरूप से कपास उत्पादक किसान ही आत्महत्याएं कर रहे हैं क्योंकि उसमें सब्सिडी ज्यादा है।फिर इस बार संकट आसमानी भी है और सुल्तानी भी।
एक दलील यह भी है कि हरित क्रांति की वजह से कृषि का सारा ढर्रा ही बदल गया है। वह पूंजी उन्मुख हो गई है।इस कारण किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है।
यह हो सकता है मगर इस कारण हरित क्रांति के पूर्व वाले युग में नहीं लौटा जा सकता। हरित क्रांति से पैदावार बढ़ी। देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बना।अगर देश में हरित क्रांति से पूर्ववाली स्थिति होती तो किसान भले ही आत्महत्या नहीं करते लेकिन लोग भुखमरी से मर जाते।अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनने के लिए तकनीक तो बदलनी ही थी। दरअसल हमारे देश में कृषि को स्वयंपूर्ण व्यवस्था बनाने की कोशिश हुई ही नहीं हुई ।कृषि आयोग के अध्यक्ष ज्यादातर वामपंथी लोग ही रहे।आज के अध्यक्ष अर्जुन सेनगुप्ता भी वामपंथी हैं। ये सभी अपने को एंटी कुलक कहते हों मगर एंटी फार्मर थे।वे हमेशा खेती को कम करके आंकते रहे। उसे अंडर एस्टीमेट करते रहे। यदि देश में पुराने किस्म की खेती जारी रही तो आबादी आधी रह जाती। दरअसल हरित खेती को दोषी ठहराना झोलावालों का फितूर है जिन्होंने पर्यावरण की दुकान सजा रखी है।
कुछ कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि किसान कर्ज का बोझ सहन न कर पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में सरकार की कर्ज की रकम दोगुनी कर देने की सरकारी नीति से किसानों को कोई खास लाभ नहीं होनेवाला।
एक तरफ सरकार कर्ज दे रही है दूसरी तरफ वह ऐसी नीतियां बना रही है कि किसान कर्ज लौटा न पाए। सरकार की इन नीतियों के चलते सरकार को कर्जे वसूलने का कोई कानूनी और नैतिक अधिकार नहीं है।
पश्चिमी बंगाल में मार्क्सवादियों की सबसे बड़ी उपलब्धि भूमि सुधार है । उसके ही बलपर वे पिछले 27 साल से जीत रहे हैं।अगर भूमि सुधारों का लाभ न हुआ होता तो बहां के ग्रामीण मार्क्सवादियों क्यों वोट देते?
मार्क्सवादियों ने बंगाल की कृषि को बर्बाद करके रख दिया है।गरीब को देना हो तो कोई ऐसी चीज दो जिससे उसे पैसा मिल सके।आज कृषि में कमाई नहीं है।मैंने एक बार राजीव गांधी से कहा था कि सलाह लेना तो किसी ऐसे आदमी से लेना जिसने कम से कम छह महीने केवल खेती से कमाई की हो।ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है।
एक जमाने में देश के एक बड़े हिस्से में किसान आंदोलन उभार पर था। धीरे-धीरे वह बिखर गया । इसकी क्या बजह है ?
नौ अगस्त को जब किसान सारे देश में रेल रोको करेंगे। तो आपको किसान आंदोलन की ताकत एक बार फिर नजर आएगी। वैसे अगर टिकैत ने आंदोलन के साथ गद्दारी न की होती तो आंदोलन और मजबूत होता। किसान आंदोलन आज भी देशभर में जारी है। मगर जब दिल्ली के आसपास आंदोलन होता है तभी वह राष्ट्रीय खबर बनता है अन्यथा क्षेत्रीय खबर बनकर रह जाता है।
आप सांप्रदायिकता के घोर विरोधी थे । शिवसेना और भाजपा आपके निशाने पर होते थे ।लेकिन अब आपने भाजपा और शिवसेना के साथ समझौता कर लिया है। शिवसेना के समर्थन से जीतकर राज्यसभा में आएं हैं। क्या आपकी सोच बदल गई है या राजनीतिक अवसरवाद है।
पहले तो यह स्पष्ट कर दूं कि हमारी अपनी पार्टी है स्वतंत्र भारत पक्ष जो एक तरह से किसान आंदोलन का ही राजनीतिक मंच है।यह पार्टी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की घटक है। इस तौर पर हमारा शिवसेना और भाजपा से रिश्ता है।निश्चित ही यह गठबंधन की बड़ी पार्टियां हैं।
जहांतक सांप्रदायिकता का सवाल है मैंने देखा दूसरी पार्टियां भी कम सांप्रदायिक नहीं हैं। हरेक के सेकुलरिज्म में टिल्ट है। मैं आंध्रप्रदेश में मुसलमानों को दिए जानेवाले आरक्षण का समर्थन नहीं कर सकता। जातिगत आरक्षण की बात अलग है।जाति वो है जो जाती नहीं।मुसलमान तो बना जा सकता है।
भाजपा को मैं हिन्दुत्ववादी नहीं मानता क्योंकि उसमें काफी खुलापन है।यह खुलापन कांग्रेस में नहीं है।मैं अगर कांग्रेस में जाऊं तो मुझे राहुल गांधी को भी नेता मानना होगा।भाजपा में मेरे लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं होगी।मुझे लगता है वंशवाद संप्रदायवाद से ज्यादा खतरनाक है।
शिवसेना की कर्जमाफी और मुफ्त बिजली की घोषणा से क्या राज्य सरकार के खजाने पर बेतहाशा बोझ नहीं बढ़ेगा। क्या यह मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना नहीं है।
यह घोषणा इस बात का संकेत है कि हम शिवसेना को सुधार रहे हैं। जहां तक किसानों की कर्जमाफी या मुफ्त बिजली की घोषणाओं का सवाल है तो मैं यही कहूंगा प्यासे को पानी पिलाना मुफ्तखोरी कैसे हो सकती है।
मैं क्यों कहता हूं इंडिया कभी भारत की जरूरतों को नहीं समझ पाता।हाल ही में महंगाई भत्ते का 50 प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों के मूल वेतन में मिलाने का फैसला हुआ ।इससे राज्यों पर 32 हजार करोड़ रूपए का बोझ बढ़ेगा।मगर किसी को इससे शिकायत नहीं है मगर किसानों की कर्जमाफी और मुफ्त बिजली की घोषणाओं से सब परेशान हैं।जबकि नौकरशाही ने क्या दिया इस देश को । क्या उनकी तनख्वाहें बढ़ने से भ्रष्टाचार में कोई कमी आई।मुझे तो लगता है कि किसानों को आतमहत्या करने के बजाय हथियार उठाने चाहिए।
इन दिनों कई लोग कृषि पर होनेवाली आमदनी पर आयकर लगाकर लगाने की मांग कर रहे हैं उसके बारे में आपका क्या कहना है?
किसान भी चाहता है कि उसे आयकर देने का सम्मान और आनंद मिले ।मगर आयकर लगाने के लिए जरूरी है कि आय भी हो। और आयकर आपकी व्यक्तिगत आय पर लगना चाहिए नकि सामूहिक आय पर ।प्रणव मुखर्जी मानते हैं कि कृषि पर 87 प्रतिशत टर्नओवर टैक्स लगता है।इसके बावजूद आयकर लगाने की बात हो रही है। लगता है कुछ लोगों को किसानों के प्रति खुन्नस है।इसमें जातीय विद्वेष की भावना भी शामिल है।तभी तो मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा के बाद 10शहरी बच्चों ने आत्मदाह किया तो वीपी सिंह की सरकार गिर गई।मगर आज हजारों किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं मगर किसी के दिल को ठेस नहीं पहुंचती।
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